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शनिवार, 6 अगस्त 2011

जाने-अनजाने


मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने

"उल्लूक महिमा ....!"

उल्लू के गुन गाइए , उल्लू जग की शान!
जो घर उल्लू बसत हैं, सो घर महल समान!
सो घर महल समान, हैं उल्लू दाता प्यारे!
इनके दरसन करे तो तेरे, वारे-न्यारे!
देखा जिसने सुबह-सुबह रे उल्लू टेढ़ा!
समझ अरे नादान, हो गया गर्क रे बेडा!
उल्लू जरा बनाय के जो शीधा कर जाये!
सो नर बनत महान, मरे तो सुराग को जाये!
कहे मुसाफिर उल्लू की है महिमा भारी
उल्लू 'उल्लू' ही नहीं, है दुनिया 'उल्लू' सारी!

मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,

सुबह जो पत्नी जी, हमको उठाने आई,
मैंने कहा प्राण प्यारी , हमें ना उठाइए!
थेला साथ लिए हाथ, मुझको हिला के बोली,
जाके जरा सब्जी, खरीद कोई लाइए,
मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
मुझको घरेलु काम मैं ना उलझाइये,
पटक के पांव मेरी प्राण प्यारी बोली मोहे,
परमेश्वर मेरे ऐसी बातें ना बनाइये,
मैं तो दासी चरणों की आप के हे ईश मेरे
हो जो परमेश्वर तो स्वर्ग को जाइये,
वरना उठाओ थेला सब्जी खरीद लावो
मेरी सोयी काली आत्मा को ना जगाइए!
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बुधवार, 3 नवंबर 2010

"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "

शहर के इस और जहाँ
आलीशान फ्लैट जगमगाते हैं
चाइनीस बल्बों की
छन-छनाती रौशनी मैं
वही
शहर के उस ओर
उस गन्दी बस्ती मैं
जहाँ आवारा कुत्तों के झुण्ड
मुह मारतें है
खुले कुड़ेदानो मैं
वही
उसी अँधेरी बस्ती मैं
नन्ही सी
मैली कुचैली
भूखी 'लछमी'
पूछती है माँ से
"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

देवि हे स्वतंत्रते......!

देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!
खुशहाल हो, भारत सदा
बने शान्ति का चमन!
देवि हे ............................!

रहे ज्ञान दीप जलता
फैले सदा प्रकाश
नित नवीन ज्ञान का
होता रहे विकास!
हो धान्य-धन से पूर्ण
ये भारत मेरा वतन!
देवि हे ..................!

सदबुद्धि दे हे भारती
मांगूं यही वरदान
मेरे स्वदेश का हर
प्राणी बने महान
झूमे ख़ुशी से साथ
तिरंगे के ये गगन!
देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!

सोमवार, 31 मई 2010

कागज़ के टुकड़ों पर............!

कागज़ के टुकड़ों पर
कलम की नोक से
काटता हूँ जिस्म को
धीरे-धीरे!
जहाँ से रिश्ता लहू
कविता की सकल में
चिल्लाता है
दर्द बनकर
और में असहाय
निरुपाय
टूटता जाता हूँ
जुड़ने की ललक में
अक्षरों की मानिंद !
मात्रा की तरह !
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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

जाने-अनजाने ......!

मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने !