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रविवार, 20 जनवरी 2013

राजनीति का उंट !

जाने किस करवट बैठेगा,
राजनीति का उंट !
सावन की हरीतिमा मिलेगी ,
या पतझड़ के ठूंठ !
क्या सच्चाई सूंघ सकेगा,
यह अँधा क़ानून?
पूछ रहा है चीख-चीख ,
सतरूपा-सुता का खून!
क्या मातृवत लख पायेगा
परदारा को पिशाच कभी?
क्या वक़्त के यक्ष प्रश्न का,
मिल पायेगा जबाब कभी?
क्या दामिनी सी सहमी बेटी,
निकलेगी घर से बेख़ौफ़?
या फिर इसी तरह मरेगी,
हअवा की बेटी बेमौत ?
क्या मरियम की सुता देश में ,
यूँ ही नोची जाएगी?
क्या ऋषियों की भूमि उर्वरा ,
अब बंजर हो जाएगी ?

जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!

जय हो बर्फानी बाबा की।।।।।

........................

शनि की जो साढ़ेसाती चढ़ी है जो देश पर ,
उसका बताओ जी उपाय कोई दीजिये!!

बैठे है जो राहु- केतु अपनी ही संसद में,
उनको हे शनि देव निकल बाहर  कीजिये!!

जय जय कार सब जन करेंगे तोरी  प्रभु,
पाक पर जय कुछ ऐसा कर दीजिये !!

उन्ही के हथियार से मारो इष्टदेव उन्हें ,
जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!

........................

शनिवार, 6 अगस्त 2011

जाने-अनजाने


मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने

"उल्लूक महिमा ....!"

उल्लू के गुन गाइए , उल्लू जग की शान!
जो घर उल्लू बसत हैं, सो घर महल समान!
सो घर महल समान, हैं उल्लू दाता प्यारे!
इनके दरसन करे तो तेरे, वारे-न्यारे!
देखा जिसने सुबह-सुबह रे उल्लू टेढ़ा!
समझ अरे नादान, हो गया गर्क रे बेडा!
उल्लू जरा बनाय के जो शीधा कर जाये!
सो नर बनत महान, मरे तो सुराग को जाये!
कहे मुसाफिर उल्लू की है महिमा भारी
उल्लू 'उल्लू' ही नहीं, है दुनिया 'उल्लू' सारी!

मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,

सुबह जो पत्नी जी, हमको उठाने आई,
मैंने कहा प्राण प्यारी , हमें ना उठाइए!
थेला साथ लिए हाथ, मुझको हिला के बोली,
जाके जरा सब्जी, खरीद कोई लाइए,
मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
मुझको घरेलु काम मैं ना उलझाइये,
पटक के पांव मेरी प्राण प्यारी बोली मोहे,
परमेश्वर मेरे ऐसी बातें ना बनाइये,
मैं तो दासी चरणों की आप के हे ईश मेरे
हो जो परमेश्वर तो स्वर्ग को जाइये,
वरना उठाओ थेला सब्जी खरीद लावो
मेरी सोयी काली आत्मा को ना जगाइए!
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बुधवार, 3 नवंबर 2010

"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "

शहर के इस और जहाँ
आलीशान फ्लैट जगमगाते हैं
चाइनीस बल्बों की
छन-छनाती रौशनी मैं
वही
शहर के उस ओर
उस गन्दी बस्ती मैं
जहाँ आवारा कुत्तों के झुण्ड
मुह मारतें है
खुले कुड़ेदानो मैं
वही
उसी अँधेरी बस्ती मैं
नन्ही सी
मैली कुचैली
भूखी 'लछमी'
पूछती है माँ से
"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

देवि हे स्वतंत्रते......!

देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!
खुशहाल हो, भारत सदा
बने शान्ति का चमन!
देवि हे ............................!

रहे ज्ञान दीप जलता
फैले सदा प्रकाश
नित नवीन ज्ञान का
होता रहे विकास!
हो धान्य-धन से पूर्ण
ये भारत मेरा वतन!
देवि हे ..................!

सदबुद्धि दे हे भारती
मांगूं यही वरदान
मेरे स्वदेश का हर
प्राणी बने महान
झूमे ख़ुशी से साथ
तिरंगे के ये गगन!
देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!

सोमवार, 31 मई 2010

कागज़ के टुकड़ों पर............!

कागज़ के टुकड़ों पर
कलम की नोक से
काटता हूँ जिस्म को
धीरे-धीरे!
जहाँ से रिश्ता लहू
कविता की सकल में
चिल्लाता है
दर्द बनकर
और में असहाय
निरुपाय
टूटता जाता हूँ
जुड़ने की ललक में
अक्षरों की मानिंद !
मात्रा की तरह !
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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

जाने-अनजाने ......!

मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने !

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

"कौन बांचेगा?"

शब्द मन की अर्गला को,
खोल पसरे उर्ध्व होकर,
बांचो, कौन बांचेगा?
वेदना की पोत कालिख,
कह रही है लेखनी भी,
बांचो, कौन बांचेगा?
कल्पना के नाग जगे,
सोये थे जो निद्रा मैं कब से,
बांधो, कौन बांधेगा?
छंद के सब बांध टूटे,
ताल सुर बेताल सारे,
नाचो, कौन नाचेगा?
मौन चुप्पी तोड़ चीखा
इस क्रांति की ज्वाला मैं जलकर,
मानो, कौन मानेगा?
दाता बता कैसी बला है,
हर शख्स क्यों बदला हुआ है,
जानो, कौन जानेगा?

"कलेंडर सी जिन्दगी "


कलेंडर सी जिन्दगी
बदल रही है हर रोज
दिन तारीख
महीनों की शक्ल में
और धीरे- धीरे
घट रहा है फासला
दुनियावी सफ़र का
हाँ
कलेंडर पर लिखे
काले हर्फो सी जिन्दगी
हर रोज
नई शक्ल में
आकार बदलती
खुद में उलझी सी
तय कर रही है रास्ता
धीरे-धीरे!!
और गुजरते वक़्त की यादें
मौसम सी
करवट लेती हैं
हर शख्स के मन में
जो भर देती है
नए उत्साह से
नव उमंग से
हमारी धमनियों को
और हम
भूल जाते हैं
कम होते फासले
उस कलेंडर की तरह
जो दिवार पर टंगा
अब भी फडफडा रहा है
शान से!!!