कुछ इस तरह उसने मेरी
आँखों से गम को छुपा लिया,
मुस्कुराये, और उसी को
नकाब अपना बना लिया!!!
पृथ्वीपाल रावत "अकेला मुसाफिर"
मंगलवार, 5 मई 2015
सोमवार, 4 मई 2015
कई दिनों के बाद!!!!!
इस सुनसान रेतीली
जमीन की
छाती के बीच!
एक अजीब सी
चुप्पी है,
कई दिनों के बाद!
कई दिनों बाद
लहू सने होंठ
खामोश हैं
लहू सनी कटारें,
बंदूकें,
तोपें, मूक हैं !
बस फैली है तो
बारूद की गंध
हर जगह; हर तरफ
एक धुंआ सा है
जो गोला बन सिमटा
है
छातियों में हर शख्स की,
ये धुंआ
माँ की छातियों से गुजरकर
जमा हो रहा है
अबोध बच्चों के
उदर में
तभी तो उनके होंठ
हो चुके हैं
बिलकुल काले
और आँखें
किसी सोच
में खोयी हुई सी
ढूंड रही है
इधर -उधर किसी
चीज को !!!
यही धुंआ
जमा हो रहा है
हर जिन्दा शख्स के अंतस में
जो चुप है
उसे घुटक कर
जाने कैसी चुप्पी
है यह
जाने क्या होगा
इस चुप्पी का राज
मैं नहीं जानता
पर वक़्त की कोख
जरुर जानती है
की आने वाल कल
इस चुप्पी पर
भारी पड़ेगा!!!
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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013
"मोमबत्ती"
जब भी
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धमाका हुआ है
देश के किसी कोने में
हर बार मैं जलाई गयी हूँ
अमन की आशा लेकर !
हर बार
जब भी जली है
कोई ललना
किसी घर के आँगन में
तो उसके आंसुओं में घुलकर
जल है मेरा वजूद
जब भी कोई दामिनी
नोची गयी है
नरपिशाचों के नापाक हाथों से
तो हर बार मेरे सीने की आग
ज्वाला बन धधकी है
मैं हर बार जली हूँ
कभी गोधरा तो कभी कश्मीर के लिए
कभी मुंबई तो कभी संसद के लिए
कभी हेदराबाद तो कभी इलाहाबाद के लिए
कभी रुचिका तो कभी दामिनी के लिए
कभी निठारी तो कभी मधुमिता के लिए
कितने नाम,
जो अब गुमनाम हो गए है
जो अब गुमनाम हो गए है
खो गए है इन्ही चौराहों की
गर्द में
जाने कहाँ
मगर हर बार
अमन की आशा में
तिल - तिल जलती
तिल - तिल जलती
यही सोचती रही
"कभी तो सुबह होगी "
"कभी तो नया सूरज उगेगा
नवीन आशाओं का"
मगर मेरी हर आश
हर नयी सुबह के साथ
हो गयी धूमिल
और हर सूरज
दे जाता है एक नया दर्द
नयी टीस
"आखिर कब तक?"
कब तक जलती रहेंगी
बेअपराध चिताएँ
और कब तक खेली जाएँगी
ये लहू सनी होलियाँ
अब तो निकलना चाहिए
कोई ठोस समाधान
जो कर सके मेरे सपनों को साकार
दे सके मेरी इच्छाओं को
नव आकार
ताकि सार्थक रहे
मेरा जलना
मेरा लड़ना
रात के धुंधलके में
सुनसान चौराहे पर !----
रविवार, 20 जनवरी 2013
राजनीति का उंट !
जाने किस करवट बैठेगा,
राजनीति का उंट !
सावन की हरीतिमा मिलेगी ,
या पतझड़ के ठूंठ !
क्या सच्चाई सूंघ सकेगा,
यह अँधा क़ानून?
पूछ रहा है चीख-चीख ,
सतरूपा-सुता का खून!
क्या मातृवत लख पायेगा
परदारा को पिशाच कभी?
क्या वक़्त के यक्ष प्रश्न का,
मिल पायेगा जबाब कभी?
क्या दामिनी सी सहमी बेटी,
निकलेगी घर से बेख़ौफ़?
या फिर इसी तरह मरेगी,
हअवा की बेटी बेमौत ?
क्या मरियम की सुता देश में ,
यूँ ही नोची जाएगी?
क्या ऋषियों की भूमि उर्वरा ,
अब बंजर हो जाएगी ?
राजनीति का उंट !
सावन की हरीतिमा मिलेगी ,
या पतझड़ के ठूंठ !
क्या सच्चाई सूंघ सकेगा,
यह अँधा क़ानून?
पूछ रहा है चीख-चीख ,
सतरूपा-सुता का खून!
क्या मातृवत लख पायेगा
परदारा को पिशाच कभी?
क्या वक़्त के यक्ष प्रश्न का,
मिल पायेगा जबाब कभी?
क्या दामिनी सी सहमी बेटी,
निकलेगी घर से बेख़ौफ़?
या फिर इसी तरह मरेगी,
हअवा की बेटी बेमौत ?
क्या मरियम की सुता देश में ,
यूँ ही नोची जाएगी?
क्या ऋषियों की भूमि उर्वरा ,
अब बंजर हो जाएगी ?
जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!
जय हो बर्फानी बाबा की।।।।।
........................
शनि की जो साढ़ेसाती चढ़ी है जो देश पर ,
उसका बताओ जी उपाय कोई दीजिये!!
बैठे है जो राहु- केतु अपनी ही संसद में,
उनको हे शनि देव निकल बाहर कीजिये!!
जय जय कार सब जन करेंगे तोरी प्रभु,
पाक पर जय कुछ ऐसा कर दीजिये !!
उन्ही के हथियार से मारो इष्टदेव उन्हें ,
जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!
........................
........................
शनि की जो साढ़ेसाती चढ़ी है जो देश पर ,
उसका बताओ जी उपाय कोई दीजिये!!
बैठे है जो राहु- केतु अपनी ही संसद में,
उनको हे शनि देव निकल बाहर कीजिये!!
जय जय कार सब जन करेंगे तोरी प्रभु,
पाक पर जय कुछ ऐसा कर दीजिये !!
उन्ही के हथियार से मारो इष्टदेव उन्हें ,
जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!
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शनिवार, 6 अगस्त 2011
जाने-अनजाने
मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने
"उल्लूक महिमा ....!"
उल्लू के गुन गाइए , उल्लू जग की शान!
जो घर उल्लू बसत हैं, सो घर महल समान!
सो घर महल समान, हैं उल्लू दाता प्यारे!
इनके दरसन करे तो तेरे, वारे-न्यारे!
देखा जिसने सुबह-सुबह रे उल्लू टेढ़ा!
समझ अरे नादान, हो गया गर्क रे बेडा!
उल्लू जरा बनाय के जो शीधा कर जाये!
सो नर बनत महान, मरे तो सुराग को जाये!
कहे मुसाफिर उल्लू की है महिमा भारी
उल्लू 'उल्लू' ही नहीं, है दुनिया 'उल्लू' सारी!
जो घर उल्लू बसत हैं, सो घर महल समान!
सो घर महल समान, हैं उल्लू दाता प्यारे!
इनके दरसन करे तो तेरे, वारे-न्यारे!
देखा जिसने सुबह-सुबह रे उल्लू टेढ़ा!
समझ अरे नादान, हो गया गर्क रे बेडा!
उल्लू जरा बनाय के जो शीधा कर जाये!
सो नर बनत महान, मरे तो सुराग को जाये!
कहे मुसाफिर उल्लू की है महिमा भारी
उल्लू 'उल्लू' ही नहीं, है दुनिया 'उल्लू' सारी!
मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
सुबह जो पत्नी जी, हमको उठाने आई,
मैंने कहा प्राण प्यारी , हमें ना उठाइए!
थेला साथ लिए हाथ, मुझको हिला के बोली,
जाके जरा सब्जी, खरीद कोई लाइए,
मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
मुझको घरेलु काम मैं ना उलझाइये,
पटक के पांव मेरी प्राण प्यारी बोली मोहे,
परमेश्वर मेरे ऐसी बातें ना बनाइये,
मैं तो दासी चरणों की आप के हे ईश मेरे
हो जो परमेश्वर तो स्वर्ग को जाइये,
वरना उठाओ थेला सब्जी खरीद लावो
मेरी सोयी काली आत्मा को ना जगाइए!
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मैंने कहा प्राण प्यारी , हमें ना उठाइए!
थेला साथ लिए हाथ, मुझको हिला के बोली,
जाके जरा सब्जी, खरीद कोई लाइए,
मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
मुझको घरेलु काम मैं ना उलझाइये,
पटक के पांव मेरी प्राण प्यारी बोली मोहे,
परमेश्वर मेरे ऐसी बातें ना बनाइये,
मैं तो दासी चरणों की आप के हे ईश मेरे
हो जो परमेश्वर तो स्वर्ग को जाइये,
वरना उठाओ थेला सब्जी खरीद लावो
मेरी सोयी काली आत्मा को ना जगाइए!
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बुधवार, 3 नवंबर 2010
"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "
शहर के इस और जहाँ
आलीशान फ्लैट जगमगाते हैं
चाइनीस बल्बों की
छन-छनाती रौशनी मैं
वही
शहर के उस ओर
उस गन्दी बस्ती मैं
जहाँ आवारा कुत्तों के झुण्ड
मुह मारतें है
खुले कुड़ेदानो मैं
वही
उसी अँधेरी बस्ती मैं
नन्ही सी
मैली कुचैली
भूखी 'लछमी'
पूछती है माँ से
"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "
आलीशान फ्लैट जगमगाते हैं
चाइनीस बल्बों की
छन-छनाती रौशनी मैं
वही
शहर के उस ओर
उस गन्दी बस्ती मैं
जहाँ आवारा कुत्तों के झुण्ड
मुह मारतें है
खुले कुड़ेदानो मैं
वही
उसी अँधेरी बस्ती मैं
नन्ही सी
मैली कुचैली
भूखी 'लछमी'
पूछती है माँ से
"माँ ! हमारी दिवाली कब होगी! "
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
देवि हे स्वतंत्रते......!
देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!
खुशहाल हो, भारत सदा
बने शान्ति का चमन!
देवि हे ............................!
रहे ज्ञान दीप जलता
फैले सदा प्रकाश
नित नवीन ज्ञान का
होता रहे विकास!
हो धान्य-धन से पूर्ण
ये भारत मेरा वतन!
देवि हे ..................!
सदबुद्धि दे हे भारती
मांगूं यही वरदान
मेरे स्वदेश का हर
प्राणी बने महान
झूमे ख़ुशी से साथ
तिरंगे के ये गगन!
देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!
शत-शत तुम्हें नमन!
खुशहाल हो, भारत सदा
बने शान्ति का चमन!
देवि हे ............................!
रहे ज्ञान दीप जलता
फैले सदा प्रकाश
नित नवीन ज्ञान का
होता रहे विकास!
हो धान्य-धन से पूर्ण
ये भारत मेरा वतन!
देवि हे ..................!
सदबुद्धि दे हे भारती
मांगूं यही वरदान
मेरे स्वदेश का हर
प्राणी बने महान
झूमे ख़ुशी से साथ
तिरंगे के ये गगन!
देवि हे स्वतंत्रते
शत-शत तुम्हें नमन!
सोमवार, 31 मई 2010
कागज़ के टुकड़ों पर............!
कागज़ के टुकड़ों पर
कलम की नोक से
काटता हूँ जिस्म को
धीरे-धीरे!
जहाँ से रिश्ता लहू
कविता की सकल में
चिल्लाता है
दर्द बनकर
और में असहाय
निरुपाय
टूटता जाता हूँ
जुड़ने की ललक में
अक्षरों की मानिंद !
मात्रा की तरह !
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कलम की नोक से
काटता हूँ जिस्म को
धीरे-धीरे!
जहाँ से रिश्ता लहू
कविता की सकल में
चिल्लाता है
दर्द बनकर
और में असहाय
निरुपाय
टूटता जाता हूँ
जुड़ने की ललक में
अक्षरों की मानिंद !
मात्रा की तरह !
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