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रविवार, 10 मई 2015

माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ


 माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
सहर की तंग गलियों में , निशा की मौन गलियों में ,
भीड़ में भी रह अकेला, माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ|
                                           माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
देखता हूँ अब भी रह-रह, नैन भीगे ओंठ सूखे,
काटती थी ओंठ फिर भी, अश्रु रोके से न रोके ,
वह विदाई की घड़ी  माँ, आज भी भुला नहीं हूँ|
                                       माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
टिमटिमाते तार से वे, नयन थे वात्सल्य झरते,
बैठने को फिर से गोदी, मन में दबे अरमां मचलते,
ममता सनी वह बांह फैली, माँ उन्हें भुला नहीं हूँ|
                                         माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
नयन लाते अश्रु भर-भर, ज्यों फूटता हो कोई निर्झर,
शब्द सरे मूक थे जो, लौट जाते थे उभर कर,
माँ तुम्हारी भाव-विह्वल, मूर्ति मैं भुला नहीं हूँ,
                                     माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |

शुक्रवार, 8 मई 2015

"मैं जनवादी कवि हूँ । ---- जनता का कवि हूँ। "

मैं जनवादी कवि हूँ  ।  ---- जनता का कवि हूँ।
ये बात तुम्हें ज्ञात होगी,
जब कुछ दिन पूर्व
मैंने एक पुस्तक का
भव्य विमोचन
जनवादी नेता द्वारा करवाया था ।
उसमे उपस्थित भीड़
जो नेता के चंदे से आई थी
हर अखबार की
सुर्ख़ियों पर छायी थी!
जिसके तले  दब मरी थी
एक गरीब , लाचार
पद-दलित साहित्यकार की मौत,
क्योकि मैं जनवादी कवि हूँ । ----- जनता का कवि हूँ ।
मेरी कविताओं में
कहीं भूख नहीं होती,
न ही होती है
ताजमहल के पीछे बसी
मलिन बस्ती की जिजिविषा
और न ही
तोड़ती पत्थर की कहानी |
मैंने जब भी लिखा है
विलायती कारों  की चमचमाती चमक
और विदेशी मेमो के
अन्तःवस्त्रों से आती
विदेशी महक का स्तुतिगान
जो जनता को मोहित करता है
मेरे शब्दों के मायाजाल में फांस कर !
मैंने लिखा है
नेताओं की धूमिल छवि  का
चमकीला चेहरा
जो उनके सफ़ेद झकझक
कुर्ते के कारण
चमकता है काली स्याह रातों में ।
हाँ ! मैं जनवादी कवि हूँ । जनता का कवि हूँ ।
भूख , बेबसी , अत्याचार ,
अन्याय व बलात्कार ,
ये सब हो चुके हैं बौने
जनता के लिए
इसीलिए मैंने
इन्हें  छोड़ दिया
 कलम से कचोटना
क्योकि इनकी टीस
मवाद बन रिसती है पूरे देश में
इसलिए अब मैं लिखता हूँ
सिने - तारिकाओं के
हर रोज बदलते प्रेम प्रसंग
और खींसे  निपोरते नेताओं का
गौरवगान
ताकि पा सकूँ सम्मान
जनवादी कवि होने का
साहित्य को ढोने का ।
क्योकि मैं जनवादी कवि हूँ ।
सिर्फ और सिर्फ
जनता का कवि हूँ ।

गुरुवार, 7 मई 2015

" भोर का तारा "

नीले अम्बर में 
निशा की साड़ी का छोर पकडे 
मुस्कुराता है  हठीला 
भोर का तारा। 
रोकना चाहता है 
लजाती - भागती 
रजनी को 
और झाँकता है 
बलात 
उसके चेहरे पर। 
और रक्ताभ रजनी 
तिरछी चितवन फेर 
झटक कर 
अपना आँचल 
 दौड़ पड़ती है 
क्षितिज की ओर 
और तारा 
निस्तेज हो 
विलीन हो जाता है 
भोर की लालिमा में !

बुधवार, 6 मई 2015

कितने गीत रह गए अगाये ॥

कितने गीत रह गए अगाये ,
अपने भी बन गए पराये ।
नहीं मानता मन विद्रोही ,
किसको समझायें ?
बिछुड़े जन कितने ही प्रियजन,
टूटे  स्वप्नों के अनगिन दरपन ।
आशायें - नैराश्य भाव बन,
मन में  घन - बन छायें ॥
टूटे साजों के सुमधुर स्वर,
मूक हुए कविता के भी स्वर।
हुए ईश भी आज अनिश्वर ,
किसको बतलायें ?
प्रश्न खड़े देहरी पर उलझे ,
कैसे भी यह उलझन सुलझे ।
उत्तर हुए निरुत्तर सारे,
किस विधि सुलझायें ?
----)(-------

मंगलवार, 5 मई 2015

मैले कागज़ पर ।

मैले  कागज़ पर
शब्दों की छितरायी  लाशें
पड़ी हैं अस्त-व्यस्त ,
जिनके  अंगों को
जोड़ता हूँ मैं
और करता हूँ कोशिश
उन्हें पहचानने की,
ढूंढता हूँ
उनके अर्थ
जो लथपथ हैं
थक्का बने
खून के सरोवर में
जहाँ से आती
सड़ांध
बताती है
की ये शब्द
सड़  चुके  हैं
और खो चुके हैं
अपनी पहचान
यहीं - कहीं !!!

क़यामत

मैं , हर रात
ख़ुदकुशी  करता हूँ
और भोर तक
ओढ़े रहता हूँ ,
मौत की ख़ामोशी का लबादा ।
और सुबह जब
ये लबादा उतार
मैं जागता हूँ  नींद से
तो लगता है की
क़यामत
आ चुकी है मेरे शहर में
और मुझ जैसे
कई मुर्दे -निकल आये हैं
अपनी कब्रों  से ---सड़कों पर । 

सोमवार, 4 मई 2015

कई दिनों के बाद!!!!!

एक सन्नाटा सा पसरा पड़ा है,
इस सुनसान रेतीली जमीन की
छाती के बीच!
एक अजीब सी चुप्पी है,
कई दिनों के बाद!
कई दिनों बाद
लहू सने होंठ खामोश हैं
लहू सनी कटारें, बंदूकें,
तोपें, मूक हैं !
बस फैली है तो
बारूद की गंध
हर जगह; हर तरफ
एक धुंआ सा है
जो गोला बन सिमटा है
छातियों में  हर शख्स की,
ये धुंआ
माँ  की छातियों से गुजरकर
जमा हो रहा है
अबोध बच्चों के उदर में
तभी तो उनके होंठ
हो चुके हैं बिलकुल काले
और आँखें
किसी सोच में  खोयी हुई सी
ढूंड रही है
इधर -उधर किसी चीज को !!!
यही धुंआ
जमा हो रहा है
हर  जिन्दा शख्स के अंतस  में
जो चुप है
उसे घुटक कर
जाने कैसी चुप्पी है यह
जाने क्या होगा
इस चुप्पी का राज
मैं नहीं जानता
पर वक़्त की कोख
जरुर जानती है
की आने वाल कल
इस चुप्पी पर भारी पड़ेगा!!!



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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

"मोमबत्ती"

जब भी
धमाका हुआ है
देश के किसी कोने में 
हर बार मैं जलाई गयी हूँ 
अमन की आशा लेकर !

हर बार
जब भी जली है
कोई ललना
किसी घर के आँगन में
तो उसके आंसुओं में घुलकर
जल है मेरा वजूद
जब भी कोई दामिनी
नोची गयी है
नरपिशाचों के नापाक हाथों से
तो हर बार मेरे सीने  की आग
ज्वाला बन धधकी है

मैं हर बार जली हूँ
कभी गोधरा तो कभी कश्मीर के लिए 
कभी मुंबई तो कभी संसद के लिए
कभी हेदराबाद  तो कभी इलाहाबाद के लिए
कभी रुचिका तो कभी दामिनी के लिए
कभी निठारी तो कभी मधुमिता के लिए
कितने नाम,
जो अब गुमनाम हो गए है
खो गए है इन्ही चौराहों की 
गर्द में
जाने कहाँ
मगर हर बार
अमन की आशा में
तिल - तिल  जलती
यही सोचती रही
"कभी तो सुबह होगी "
"कभी तो नया सूरज उगेगा
नवीन आशाओं का"
मगर मेरी हर आश
हर नयी सुबह के साथ
हो गयी धूमिल
और हर सूरज
दे जाता है एक नया दर्द
नयी टीस
"आखिर कब तक?"
कब तक जलती रहेंगी
बेअपराध चिताएँ
और कब तक खेली जाएँगी 
ये लहू सनी होलियाँ

अब तो निकलना चाहिए
कोई ठोस समाधान
जो कर सके मेरे सपनों को साकार
दे सके मेरी इच्छाओं को
नव आकार
ताकि सार्थक रहे
मेरा जलना
मेरा लड़ना
रात के धुंधलके में
सुनसान चौराहे पर !
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रविवार, 20 जनवरी 2013

राजनीति का उंट !

जाने किस करवट बैठेगा,
राजनीति का उंट !
सावन की हरीतिमा मिलेगी ,
या पतझड़ के ठूंठ !
क्या सच्चाई सूंघ सकेगा,
यह अँधा क़ानून?
पूछ रहा है चीख-चीख ,
सतरूपा-सुता का खून!
क्या मातृवत लख पायेगा
परदारा को पिशाच कभी?
क्या वक़्त के यक्ष प्रश्न का,
मिल पायेगा जबाब कभी?
क्या दामिनी सी सहमी बेटी,
निकलेगी घर से बेख़ौफ़?
या फिर इसी तरह मरेगी,
हअवा की बेटी बेमौत ?
क्या मरियम की सुता देश में ,
यूँ ही नोची जाएगी?
क्या ऋषियों की भूमि उर्वरा ,
अब बंजर हो जाएगी ?

जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!

जय हो बर्फानी बाबा की।।।।।

........................

शनि की जो साढ़ेसाती चढ़ी है जो देश पर ,
उसका बताओ जी उपाय कोई दीजिये!!

बैठे है जो राहु- केतु अपनी ही संसद में,
उनको हे शनि देव निकल बाहर  कीजिये!!

जय जय कार सब जन करेंगे तोरी  प्रभु,
पाक पर जय कुछ ऐसा कर दीजिये !!

उन्ही के हथियार से मारो इष्टदेव उन्हें ,
जय हो भोले नाथ जी करिश्मा कोई कीजिये!!

........................

शनिवार, 6 अगस्त 2011

जाने-अनजाने


मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने