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रविवार, 22 मई 2016

कालिन्दी हूँ मैं।

जी हाँ।
कालिन्दी हूँ मैं।
नहीं पहचाना ना!
मुझे पता था•••••
कैसे जान पाओगे
देखा जो नहीं है तुमने
कभी मेरा यह काला रूप।
तुम नहीं देख पाये कभी
मेरे जीवन का कालीदह
जिसके पाश में बन्धी
मैं -
मैं ना रही।
और खो गई मुझसे
मेरी अपनी पहचान
जिसे तुम जानते थे।
पहचानते थे।
काश के तुम देख पाते
और मिल पाते
मेरे अन्दर छिपी मैं से!!!

शुक्रवार, 20 मई 2016

विद्रोह के स्वर ...|

कुंठित संवेदनाएं
लुंठित देह की - पोर-पोर में
आवेश से
वेदना की धार पर
कल्लोल करती हैं ।
और उभर आते हैं
विद्रोह के स्वर
मुखाग्नि बन
और होता है तांडव ।
और एक बलवा
जन्म लेता है
पूंजीवाद की जमीन पर ।
यहाँ - वहां ।
कभी कहीं ,
कभी कहीं ।
सर्वहारा की छाती पर
पूंजीवाद के विरुद्ध ।

वह लड़की।

तपती दुपहरी
सड़क पर
धूल भरी
मैली-कुचैली
थैली में
कुछ संतरे लिए
यही कोई १०-१२ साल की
वह लड़की
जिसकी आँखों में
दिखाई दी चमक
चमचमाती मोटर देख
और दौड़ती हुई , ऊँची आवाज में
देती है  आवाज
संतरे ले लो, संतरे ले लो ...
और हिलती है हाथ
मोटर रोकने को - उल्लास  से ।
पर हतभाग्य
ड्राइवर निर्विकार भाव से
एक्सीलेटर पर पंजे का दवाव
बढ़ता चला जाता है ...... बढ़ता चला जाता है ......
मगर फिर भी
वह लड़की
मोटर के पीछे भागती है दूर तलक
इसी  चाह में। ..की गाड़ी अब रुकी ..... तब रुकी .....।
मगर मोटर ..
उसे न रुकना था.....
न रुकी..... 
और वह लड़की
थम गयी
आँखों मैं अनेक भाव लिए
निराशाओं के
जहाँ -तहां
जो झांकते हैं इधर -उधर
इन सवालों के रूप में
की क्या  आज भी -उसे लौटना पड़ेगा
खाली हाथ
और लेटना होगा - भूखे पेट
उस अँधेरे दड़बे में ?
  

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

.............रोटियां विषैली हो गयी हैं!! (एक पुरानी डायरी का पन्ना )

आज फिर एक मौत हो गयी
भूख के कारण
आज फिर साबित हुआ भूखा राजू 
रोटी चोर 
और कर दिया गया लहुलुहान 
चोरी के जुर्म में 
बीच सड़क पर
आज फिर ममता लुटा आई अपनी अस्मत
चंद टुकडो के लिए 
ताकि भर सके पेट 
अपने भूखे बच्चों का........
... महज एक रोटी ने 
आदमी को बना दिया है कुत्ता
जो पेट की खातिर 
गले में पट्टा डाल
तलवे चाटता है 
रोटी के लिए !
मगर सरकारी आकडे कहते हैं
की एक भी मौत नहीं हुई है 
रोटी के कारण 
क्योंकि हर आदमी के हिस्से का अनाज 
सड़ रहा है गोदामों में 
यहाँ- वहां!
सच तो यह है की इन्हें भूख ने नहीं, रोटियों ने मारा है 
क्योंकि रोटियां विषैली हो चुकी हैं 
मेरे शहर की....

बुधवार, 23 मार्च 2016

जब भी .....!

जब भी नजर पड़ती है
       मुस्कुराते फूलों पर
              तो लगता है जैसे तुम
              हंसी हो – छुपा कर खुद को –मुझ से
                     इन फूलों के  बीच
                           और  तुम्हारे चेहरे की रंगत
                                  उभर आती है फूलों की शक्ल में !
जब भी रातों को
       नजर पड़ती है आसमान में
              तो तुम चाँद बन – मेरी पहुँच से दूर
                     बहूत दूर –मुस्कुराती हुई कहती हो
                           “ मुझे छु लो !”
और जब भी हताश मैं
       बैठ जाता हूँ जमीं पर
              तो तुम जुगनू बन
                     चली आती हो मेरे पास
                           और आँखें झपकती
                                  नन्ही अबोध बच्ची सी
                                          मुझे निहारती हो अपलक ....!
और जब देखता हूँ
       खुद पे गिरी शबनम को
              तो लगता है तुम्हारी भीगी हुई जुल्फों से
                     गिरी हों चंद बूंदें
                           और उसका गीलापन
                                   मेरे जिस्म से लिपट जाता है
                                         तुम्हारी तरह!!!!


गुरुवार, 17 मार्च 2016

बेच डालो - OLX

बेच डालो - OLX   ....
क्या बेच पाओगे मेरा कीमती सामान?
जिसकी कोई  कीमत – कोई ख़रीददार
ढूंड पाने  की सारी तिगडम
ले चुकी हैं कई किताबों का  रूप
और भर चुके है सारे
वाचनालय – पुस्तकालय – मुद्रणालय !
परन्तु नहीं मिला - एक वो अकेला शख्स
जो खरीद सके..... मेरा सामान

OLX !
क्या तुम लगाओगे मेरे सामान पर
"
For Sale  " का राजसी Label ....
क्या दिला पाओगे उसे कीमत का मूल्य ?
मांग और पूर्ति की धारा के बीच
अपना अस्तित्व ढूंडती  ‘ईमानदारी ‘
जोहती है  बाट नए ‘मास्लो’ की
जो शामिल कर सके
उसे आवश्यकताओं की नयी list में !
परन्तु हर बार
नया नियम खा जाता  है
पुराने नियम  की चटनी
मांग की रोटी के बीच ....!
OLX ! काश तुम बेच सकते
मेरा सामान
चंद कागजी नोटों के बदले
जिसपे चस्पा गांधी
बन गए तुष्टिकरण  की नयी परिभाषा ...
राजनैतिक गलियारों के Red Carpet पे
कागज़ी मुस्कान ओढ़कर !
ओ OLX  !
क्या बेच पाओगे मेरा कीमती सामान?
बताओ ना ....!

शनिवार, 15 अगस्त 2015

कर्मयोगी ‘अब्दुल कलाम’ (महान वैज्ञानिक , भारत रत्न , मिसाइल मैन, पूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी के निधन पर विनम्र श्रद्धांजलि)


कर्मयोगी ‘अब्दुल कलाम’
---------------------------
देकर अग्नि को नए पंख,
और देश को नव आयाम |
चला गया भारत-सपूत ,
कर्मयोगी ‘अब्दुल कलाम’ ||
देकर हर मन को नयी सोच,
दे नवल सृजन का विजय घोष |
तम से लड़ने की नवल शक्ति ,
भर गया सभी में नवल जोश |
तुम सृजनहार नव भारत के,
तुमसे भारत का स्वाभिमान |
ओ कलाम ! भारत – गौरव ,
तुम्हें याद करेगा हिन्दुस्तान ||

---

गर्म लावा

ठन्डे लोहे के गर्भ से,
दहकता गर्म लावा 
बाहर निकलकर बिंध जाता 
है ह्रदय को 
और धारा रक्त की है फ़ैल जाती
राजपथ पर
सुनसान अँधेरी रात को,
एक मानव फडफडाता
है जमी पर
और दूजा हँस के
चल देता है अपनी राह को
दूर मानवता खडी थी
बदहवास
और जालिम चीटियां अब
चढ़ गयी हैं लाश पर........

मेरे घर की दिवार पर.....!

दिवार पर फिर उग आई हैं
चंद आकृतियाँ
आज की शक्ल  में!
पतली सी चंद लकीरें
मन के भीतर तक
धंस गयी हैं ...
और एक शख्स
झूलता नजर आया है
वेदना के सलीब पर
उल्टा...
बिलकुल उल्टा...
जहाँ चंद रस्सियाँ
बंधी हैं  उसकी टांगों में
और गला .....
कटा गया है नश्तर से
कहीं गहरे तक
दूर कहीं उखड़ा हुआ प्लास्टर
बन गया है उखड़ी सांसो का प्रतीक
और खून ...................
कोने में लगे - मकड़ी के जाले सा
चिपका हुआ है मेरी आँखों में...
और एक मुक्कम्मल पर अधूरी सी तस्वीर
उभर आती है...

मेरे घर की दिवार पर.....!

जश्न-ए-आजादी!

अडसठ साल व्यतीत हुए ...
लगता है ज्यों कल की बात ...
देश हमारा छोड़ के दुश्मन
भागा था घर आधी रात ....
पहली किरण ले कर आई थी
उस दिन कुछ ऐसा पैगाम
हर्षाया था जन-गण-मन
लेकर आजादी की मुस्कान ...
अश्रुधार थी हर आँखों में
हर मन बहका –बहका सा था ...
आजादी की नव बयार से,
हर आँगन महका –महका सा था ...
याद शहीदों की ले मन में
लहराई थी बड़े शान से,
लाल किले पर तीन रंग की
विजय पताका आसमान  में...
कोटि –कोटि कंठो से निकली
थी जयकार हिन्द की उस दिन
आजादी की डोली से जब
नयी सुबह उतरी थी इस दिन....
नया जोश –नूतन स्वप्नों का
मन में नव उत्साह भरे
दिवस स्वतंत्रता सदा सर्वदा
नवल शक्ति संचार करे ...
आओ मिलकर आजादी का
मिलकर गौरवगान करें
वीर शहीदों के स्वप्नों का
नव भारत निर्माण करें !


रविवार, 10 मई 2015

माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ


 माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
सहर की तंग गलियों में , निशा की मौन गलियों में ,
भीड़ में भी रह अकेला, माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ|
                                           माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
देखता हूँ अब भी रह-रह, नैन भीगे ओंठ सूखे,
काटती थी ओंठ फिर भी, अश्रु रोके से न रोके ,
वह विदाई की घड़ी  माँ, आज भी भुला नहीं हूँ|
                                       माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
टिमटिमाते तार से वे, नयन थे वात्सल्य झरते,
बैठने को फिर से गोदी, मन में दबे अरमां मचलते,
ममता सनी वह बांह फैली, माँ उन्हें भुला नहीं हूँ|
                                         माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |
नयन लाते अश्रु भर-भर, ज्यों फूटता हो कोई निर्झर,
शब्द सरे मूक थे जो, लौट जाते थे उभर कर,
माँ तुम्हारी भाव-विह्वल, मूर्ति मैं भुला नहीं हूँ,
                                     माँ तुम्हें भुला नहीं हूँ |