मजबूरी की गठरी बांध
भूखे पेट
निकल पड़ा मजदूर
वापस
उसी नीड़ की ओर
जहां से चला था कभी
रोटी की
अंतहीन तलाश में
अपनों को बचाने
अपनों से दूर।
रोटी
खींच लाई थी जिसे
मीलों दूर
तोड़ कर सब बंधन
सारे मोह पाश
सिमट गई थी
सारी दुनिया
रोटी के परिमाप में।
यही रोटी
आज हो गई है
अजनबी
अनजान शहर में
जहां अपना
कोई नहीं!
है तो बस
नाम के चार
जाने पहचाने लोग
जो अब नहीं चीन्हते
उनकी पहचान।
ये वही है
जो तोड़ते थे कभी पत्थर
निराला के रास्तों का।
ये वही है
जो ढोते है गारा
सीमेंट और रेत।
इनकी हथौड़ी
खा गया साम्यवाद
इनके हंसिए
मिल मालकों के घर
दे रहे है पहरा।
पर आज
कुंद हो गया सब
सामर्थ्य
रोटी के आगे।
और नतमस्तक है
लजाया
लाल सलाम
जो देख रहा है
छाले
विकास की जमीन पर
विनाश का अग्रदूत बन।।