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गुरुवार, 14 मई 2020

मजदूर - मजबूर।

राजपथ पर
मजबूरी की गठरी बांध
भूखे पेट
निकल पड़ा मजदूर
वापस
उसी नीड़ की ओर
जहां से चला था कभी
रोटी की
अंतहीन तलाश में
अपनों को बचाने
अपनों से दूर।
रोटी
खींच लाई थी जिसे
मीलों दूर
तोड़ कर सब बंधन
सारे मोह पाश
सिमट गई थी
सारी दुनिया
रोटी के परिमाप में।
यही रोटी
आज हो गई है
अजनबी
अनजान शहर में
जहां अपना
कोई नहीं!
है तो बस
नाम के चार
जाने पहचाने लोग
जो अब नहीं चीन्हते
उनकी पहचान।
ये वही है
जो तोड़ते थे कभी पत्थर
निराला के रास्तों का।
ये वही है
जो ढोते है गारा
सीमेंट और रेत।
इनकी हथौड़ी
खा गया साम्यवाद
इनके हंसिए
मिल मालकों के घर
दे रहे है पहरा।
पर आज
कुंद हो गया सब
सामर्थ्य
रोटी के आगे।
और नतमस्तक है
लजाया 
लाल सलाम 
जो देख रहा है 
छाले
विकास की जमीन पर
विनाश का अग्रदूत बन।।





रविवार, 10 मई 2020

मातृ दिवस पर गूंजता मौन।

लॉक डाउन में बंद
चारदिवारी के भीतर
मोबाइल में चटियाते
औरों से बतियाते,
अपनों के सन्नाटे के बीच
कब आ गया मदर्स डे
मालूम नहीं।
अचानक याद आया सबको
मां का असीम प्रेम!
याद आया
अतुलनीय त्याग!
उपेक्षित जीवन!
और होने लगे अपलोड
चमचमाते छायाचित्र।
हैशटैग के साथ
#HappyMothersDay
#Mysweetmom
ढूंढने लगा हर मानस
कितने मार्मिक गीत
गूगल की छाती पर
जिन्हे बिसरा चुके थे
सब
आउट डेटेड मान
और करने लगा डाउनलोड
और फिर अपलोड
नए रूप देकर।
बस एक दिन
माता का।
और फिर
फ्री पूरे साल भर
सिर्फ एक दिन
मां का
जो निभा रहा है
आदमी
श्राद्ध की तरह।
पर सुना है कहीं
श्राद्ध भी
किया जाता है तीन बार
पर आजकल.....!
खैर छोड़ो
मुबारक हो सबको।
#MothersDay


गुरुवार, 7 मई 2020

"कुछ तो सही हुआ है।"

कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।
देखा है मैंने
कुछ विलुप्त होते
पंछियों को,
जो
भर रहे हैं उड़ाने
इस छत की मुंडेर से
उस छत की मुंडेर तक।
चहकते हुए पंछी
जो बस किताबों तक
सिमट चुके थे,
बन गए थे
दादी - नानी की कहानियों के पात्र।
कुछ ख़ामोश जुगनू
फिर चीरते हैं स्याह सन्नाटे
और हवा
ले कर आती है
बौराया पराग।
अंचिन्ही, बिसरी सी सुगंध
भर आती है 
नकपुटों में
जिसे पी कर
अचंभित,
उल्लासित बचपन
करता है आत्मसात
अपनी कहानी में,
कविता में,
भरता है रंग
जीवन के कैनवास पर।
और दूर
क्षितिज पर
मुस्काता चांद
यही पूछता है
क्या यह वही दुनिया है,
जो मिल चुकी थी
धूल में।।
कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।।