इस सुनसान रेतीली
जमीन की
छाती के बीच!
एक अजीब सी
चुप्पी है,
कई दिनों के बाद!
कई दिनों बाद
लहू सने होंठ
खामोश हैं
लहू सनी कटारें,
बंदूकें,
तोपें, मूक हैं !
बस फैली है तो
बारूद की गंध
हर जगह; हर तरफ
एक धुंआ सा है
जो गोला बन सिमटा
है
छातियों में हर शख्स की,
ये धुंआ
माँ की छातियों से गुजरकर
जमा हो रहा है
अबोध बच्चों के
उदर में
तभी तो उनके होंठ
हो चुके हैं
बिलकुल काले
और आँखें
किसी सोच
में खोयी हुई सी
ढूंड रही है
इधर -उधर किसी
चीज को !!!
यही धुंआ
जमा हो रहा है
हर जिन्दा शख्स के अंतस में
जो चुप है
उसे घुटक कर
जाने कैसी चुप्पी
है यह
जाने क्या होगा
इस चुप्पी का राज
मैं नहीं जानता
पर वक़्त की कोख
जरुर जानती है
की आने वाल कल
इस चुप्पी पर
भारी पड़ेगा!!!
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