दिवार पर फिर उग आई हैं
चंद आकृतियाँ
आज की शक्ल में!
पतली सी चंद लकीरें
मन के भीतर तक
धंस गयी हैं ...
और एक शख्स
झूलता नजर आया है
वेदना के सलीब पर
उल्टा...
बिलकुल उल्टा...
जहाँ चंद रस्सियाँ
बंधी हैं उसकी टांगों
में
और गला .....
कटा गया है नश्तर से
कहीं गहरे तक
दूर कहीं उखड़ा हुआ प्लास्टर
बन गया है उखड़ी सांसो का प्रतीक
और खून ...................
कोने में लगे - मकड़ी के जाले सा
चिपका हुआ है मेरी आँखों में...
और एक मुक्कम्मल पर अधूरी सी तस्वीर
उभर आती है...
मेरे घर की दिवार पर.....!