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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

"मोमबत्ती"

जब भी
धमाका हुआ है
देश के किसी कोने में 
हर बार मैं जलाई गयी हूँ 
अमन की आशा लेकर !

हर बार
जब भी जली है
कोई ललना
किसी घर के आँगन में
तो उसके आंसुओं में घुलकर
जल है मेरा वजूद
जब भी कोई दामिनी
नोची गयी है
नरपिशाचों के नापाक हाथों से
तो हर बार मेरे सीने  की आग
ज्वाला बन धधकी है

मैं हर बार जली हूँ
कभी गोधरा तो कभी कश्मीर के लिए 
कभी मुंबई तो कभी संसद के लिए
कभी हेदराबाद  तो कभी इलाहाबाद के लिए
कभी रुचिका तो कभी दामिनी के लिए
कभी निठारी तो कभी मधुमिता के लिए
कितने नाम,
जो अब गुमनाम हो गए है
खो गए है इन्ही चौराहों की 
गर्द में
जाने कहाँ
मगर हर बार
अमन की आशा में
तिल - तिल  जलती
यही सोचती रही
"कभी तो सुबह होगी "
"कभी तो नया सूरज उगेगा
नवीन आशाओं का"
मगर मेरी हर आश
हर नयी सुबह के साथ
हो गयी धूमिल
और हर सूरज
दे जाता है एक नया दर्द
नयी टीस
"आखिर कब तक?"
कब तक जलती रहेंगी
बेअपराध चिताएँ
और कब तक खेली जाएँगी 
ये लहू सनी होलियाँ

अब तो निकलना चाहिए
कोई ठोस समाधान
जो कर सके मेरे सपनों को साकार
दे सके मेरी इच्छाओं को
नव आकार
ताकि सार्थक रहे
मेरा जलना
मेरा लड़ना
रात के धुंधलके में
सुनसान चौराहे पर !
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