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शुक्रवार, 20 मई 2016

विद्रोह के स्वर ...|

कुंठित संवेदनाएं
लुंठित देह की - पोर-पोर में
आवेश से
वेदना की धार पर
कल्लोल करती हैं ।
और उभर आते हैं
विद्रोह के स्वर
मुखाग्नि बन
और होता है तांडव ।
और एक बलवा
जन्म लेता है
पूंजीवाद की जमीन पर ।
यहाँ - वहां ।
कभी कहीं ,
कभी कहीं ।
सर्वहारा की छाती पर
पूंजीवाद के विरुद्ध ।