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बुधवार, 8 जुलाई 2020

रिमझिम के गीत

गुंजित हैं मेघों के स्वर,
दादुर बोल रहे टर - टर।
मतवारे झोंके के डर से,
कांपे पीपरिया थर - थर।।
रिमझिम पड़ी फुहारों से,
भीगे गौरैया के पर।
सोच रही है बच्चों को,
ले जाए, अब कहां? किधर?
इंद्रधनुष के रंगों से,
होली खेल रहे बादल।
बरस रहा देखो झर झर,
आसमान से ये बादल।
खरगोशी सांझे डूबी,
उड़े कबूतर सा यह दिन।
टप टप करती बूंदों से,
भीग रहे हैं सब पल छिन।
लहर लहर नदिया लहराती,
तोड़ तटों के सब बंधन।
मछली सा तैरे नदिया में,
जन मन के बचपन सा मन।
नौकाओं का साहस देखो,
डोल रही है जो मंझधार।
नाविक का दुस्साहस देखो,
कैसे होगी नदिया पार?
सजनी बोली सुन री सखिया!
आये री मनभावन दिन।
अमराई पर बोली कोयल,
आए री सावन के दिन!






बुधवार, 10 जून 2020

इब्न-ए-बतूता

मस्त मुसाफिर इब्न-ए-बतूता,

सफ़र-ए-शहंशाह  की गाथा |

आज सुनाते हैं हम सबको ,

सुनो-सुनो  भगिनी – भ्राता ||

सदी तेरहवी अरब देश से ,

चला मुसाफिर एक अंजान |

घूम-घूम कर  जिसने  पाई,

देश-विदेशों  में  पहचान |

मक्का की  गलियों से निकला ,

इब्न-ए-बतूता जिसका नाम ||

पार  किये  कई  उदधि – मरुस्थल ,

घुमा  जिसने  सकल जहान |

अरब-इराक़-काहिरा घूमा ,

चीन और  भारत – ईरान |

अँधेरी गलियों को छाना ,

जिससे थी  दुनिया अनजान |

महा घुमक्कड़ की गाथा का ,

आज यहाँ मिल करें बखान |

नगरी-नगरी  फिरने  वाला ,

ये आजाद –अजब इंसान |

संक्रमण के विरूद्ध।

एक मोर्चा
व्यस्त है
बचाने को ज़िंदगी
लगा है रात दिन 
सेवा - सुश्रुषा में
पहन कर हौसले के कवच - कुंडल
लड़ रहा है 
दिन - रात
अनजाने शत्रु से।
अपनों से दूर, अपनों के बीच।
एक मोर्चा
संभाले तीर कमान
दे रहा है पहरा
सड़कों में, गलियों में
भूखा - प्यासा
और खा रहा है 
लाठी, पत्थर
बज्र से शरीर पर।
पत्थर के फूल
बरसते हैं आसमानों से
एक अनजान भय
दुबका है
बुलेप्रूफ जाकेट की जेबों में।
हेल्मेट पर उतर आता है खून
अपनों के प्रहारों से।
और अघोषित युद्ध
चला जा रहा है
हर घर की देहरी पर।
लाशों का भयावह खेल
बस गया है
हर बच्चे के अंतस में
और अनजान शत्रु
रक्तबीज सा
संख्य से असंख्य
सीम से असीम
बढ़ रहा है
नाउम्मीदी के अंधेरे में।
हर तरफ
खौफ है
दूसरा सूरज ना देखने का
हर रात
ले कर आती है 
एक नया संक्रमण।
पर
आशा की किरण
फिर भी जाने -अनजाने
जगाती है उम्मीद
अंधेरे के छटने की।
हर मोर्चे पर बैठा आदमी
दे रहा है हौसला
नए युग का
और कर रहा है होम
अपने आज का
कोरॉना के खिलाफ़।
संक्रमण के विरूद्ध।।


गुरुवार, 14 मई 2020

मजदूर - मजबूर।

राजपथ पर
मजबूरी की गठरी बांध
भूखे पेट
निकल पड़ा मजदूर
वापस
उसी नीड़ की ओर
जहां से चला था कभी
रोटी की
अंतहीन तलाश में
अपनों को बचाने
अपनों से दूर।
रोटी
खींच लाई थी जिसे
मीलों दूर
तोड़ कर सब बंधन
सारे मोह पाश
सिमट गई थी
सारी दुनिया
रोटी के परिमाप में।
यही रोटी
आज हो गई है
अजनबी
अनजान शहर में
जहां अपना
कोई नहीं!
है तो बस
नाम के चार
जाने पहचाने लोग
जो अब नहीं चीन्हते
उनकी पहचान।
ये वही है
जो तोड़ते थे कभी पत्थर
निराला के रास्तों का।
ये वही है
जो ढोते है गारा
सीमेंट और रेत।
इनकी हथौड़ी
खा गया साम्यवाद
इनके हंसिए
मिल मालकों के घर
दे रहे है पहरा।
पर आज
कुंद हो गया सब
सामर्थ्य
रोटी के आगे।
और नतमस्तक है
लजाया 
लाल सलाम 
जो देख रहा है 
छाले
विकास की जमीन पर
विनाश का अग्रदूत बन।।





रविवार, 10 मई 2020

मातृ दिवस पर गूंजता मौन।

लॉक डाउन में बंद
चारदिवारी के भीतर
मोबाइल में चटियाते
औरों से बतियाते,
अपनों के सन्नाटे के बीच
कब आ गया मदर्स डे
मालूम नहीं।
अचानक याद आया सबको
मां का असीम प्रेम!
याद आया
अतुलनीय त्याग!
उपेक्षित जीवन!
और होने लगे अपलोड
चमचमाते छायाचित्र।
हैशटैग के साथ
#HappyMothersDay
#Mysweetmom
ढूंढने लगा हर मानस
कितने मार्मिक गीत
गूगल की छाती पर
जिन्हे बिसरा चुके थे
सब
आउट डेटेड मान
और करने लगा डाउनलोड
और फिर अपलोड
नए रूप देकर।
बस एक दिन
माता का।
और फिर
फ्री पूरे साल भर
सिर्फ एक दिन
मां का
जो निभा रहा है
आदमी
श्राद्ध की तरह।
पर सुना है कहीं
श्राद्ध भी
किया जाता है तीन बार
पर आजकल.....!
खैर छोड़ो
मुबारक हो सबको।
#MothersDay


गुरुवार, 7 मई 2020

"कुछ तो सही हुआ है।"

कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।
देखा है मैंने
कुछ विलुप्त होते
पंछियों को,
जो
भर रहे हैं उड़ाने
इस छत की मुंडेर से
उस छत की मुंडेर तक।
चहकते हुए पंछी
जो बस किताबों तक
सिमट चुके थे,
बन गए थे
दादी - नानी की कहानियों के पात्र।
कुछ ख़ामोश जुगनू
फिर चीरते हैं स्याह सन्नाटे
और हवा
ले कर आती है
बौराया पराग।
अंचिन्ही, बिसरी सी सुगंध
भर आती है 
नकपुटों में
जिसे पी कर
अचंभित,
उल्लासित बचपन
करता है आत्मसात
अपनी कहानी में,
कविता में,
भरता है रंग
जीवन के कैनवास पर।
और दूर
क्षितिज पर
मुस्काता चांद
यही पूछता है
क्या यह वही दुनिया है,
जो मिल चुकी थी
धूल में।।
कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।।