कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।
देखा है मैंने
कुछ विलुप्त होते
पंछियों को,
जो
भर रहे हैं उड़ाने
इस छत की मुंडेर से
उस छत की मुंडेर तक।
चहकते हुए पंछी
जो बस किताबों तक
सिमट चुके थे,
बन गए थे
दादी - नानी की कहानियों के पात्र।
कुछ ख़ामोश जुगनू
फिर चीरते हैं स्याह सन्नाटे
और हवा
ले कर आती है
बौराया पराग।
अंचिन्ही, बिसरी सी सुगंध
भर आती है
नकपुटों में
जिसे पी कर
अचंभित,
उल्लासित बचपन
करता है आत्मसात
अपनी कहानी में,
कविता में,
भरता है रंग
जीवन के कैनवास पर।
और दूर
क्षितिज पर
मुस्काता चांद
यही पूछता है
क्या यह वही दुनिया है,
जो मिल चुकी थी
धूल में।।
कुछ तो सही हुआ है
इन काले स्याह दिनों में।।
2 टिप्पणियां:
अच्छा लिखते हैं। लगातार लिखिये।
बहुत बहुत धन्यबाद श्रीमान !
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