पुरस्कृत कविता- मरियम तुम्ही बताओ
ओ मरियम!
मेरे परमेश्वर की माँ!
तुम्हीं बताओ
मैं क्या करूँ?
तुम्हीं बताओ
मैं कैसे उठाऊं
अपने परमेश्वर के कृत्यों का अनचाहा बोझ
जो अनजाने ही हो रहा है पोषित मेरे गर्भ मैं?
ओ मरियम तुम्हीं बताओ....!
ओ मरियम!
क्या तुमने भी भोगा था यह अभिशाप
जो मुझे मिला है
एक 'कुवारी माँ' बनकर,
शायद नहीं!
क्योंकि तब वासना की भूख
इतनी भड़की नहीं रही होगी
ना ही मानव इतना कुटिल रहा होगा
जितना कि आज है
तुम्हारे पुत्र को
जो निशानी था तुम्हारे परमेश्वर की
उसे उन भोले मासूम लोगों ने
मान लिया दाता
अपना भाग्य विधाता
मगर.......
मेरे परमेश्वर की निशानी
इन्सां नहीं
जानवर की औलाद होगी....!
ओ मरियम!
तुम जान सकती हो मेरे जैसी लाखों मरियामों का दर्द
जो आज भी
छोड़ देती हैं,
अपने परमेश्वर की निशानी
किसी अनाथालय, वाचनालय,
मंदिर या गिरजाघर के
किसी सुनसान कोने में.
या फिर समय से पहले
कालकलवित हो जाती है
नन्ही रूह
ओ मरियम,
तुम जान सकती हो मेरा दर्द
तुम्हीं बताओ
क्या करूँ मैं................!
kaushik sahab, manoj ji, rashmiji, rachna ji, vinod ji,asha ji, kishore ji, aap sabhi logon ne kavita ko padha uski sarahna ki, atisay dhanyabad