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मंगलवार, 5 मई 2015

मैले कागज़ पर ।

मैले  कागज़ पर
शब्दों की छितरायी  लाशें
पड़ी हैं अस्त-व्यस्त ,
जिनके  अंगों को
जोड़ता हूँ मैं
और करता हूँ कोशिश
उन्हें पहचानने की,
ढूंढता हूँ
उनके अर्थ
जो लथपथ हैं
थक्का बने
खून के सरोवर में
जहाँ से आती
सड़ांध
बताती है
की ये शब्द
सड़  चुके  हैं
और खो चुके हैं
अपनी पहचान
यहीं - कहीं !!!

क़यामत

मैं , हर रात
ख़ुदकुशी  करता हूँ
और भोर तक
ओढ़े रहता हूँ ,
मौत की ख़ामोशी का लबादा ।
और सुबह जब
ये लबादा उतार
मैं जागता हूँ  नींद से
तो लगता है की
क़यामत
आ चुकी है मेरे शहर में
और मुझ जैसे
कई मुर्दे -निकल आये हैं
अपनी कब्रों  से ---सड़कों पर । 

सोमवार, 4 मई 2015

कई दिनों के बाद!!!!!

एक सन्नाटा सा पसरा पड़ा है,
इस सुनसान रेतीली जमीन की
छाती के बीच!
एक अजीब सी चुप्पी है,
कई दिनों के बाद!
कई दिनों बाद
लहू सने होंठ खामोश हैं
लहू सनी कटारें, बंदूकें,
तोपें, मूक हैं !
बस फैली है तो
बारूद की गंध
हर जगह; हर तरफ
एक धुंआ सा है
जो गोला बन सिमटा है
छातियों में  हर शख्स की,
ये धुंआ
माँ  की छातियों से गुजरकर
जमा हो रहा है
अबोध बच्चों के उदर में
तभी तो उनके होंठ
हो चुके हैं बिलकुल काले
और आँखें
किसी सोच में  खोयी हुई सी
ढूंड रही है
इधर -उधर किसी चीज को !!!
यही धुंआ
जमा हो रहा है
हर  जिन्दा शख्स के अंतस  में
जो चुप है
उसे घुटक कर
जाने कैसी चुप्पी है यह
जाने क्या होगा
इस चुप्पी का राज
मैं नहीं जानता
पर वक़्त की कोख
जरुर जानती है
की आने वाल कल
इस चुप्पी पर भारी पड़ेगा!!!



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