मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने !
कुछ इस तरह उसने मेरी
आँखों से गम को छुपा लिया,
मुस्कुराये, और उसी को
नकाब अपना बना लिया!!!
पृथ्वीपाल रावत "अकेला मुसाफिर"
शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
"कौन बांचेगा?"
शब्द मन की अर्गला को,
खोल पसरे उर्ध्व होकर,
बांचो, कौन बांचेगा?
वेदना की पोत कालिख,
कह रही है लेखनी भी,
बांचो, कौन बांचेगा?
कल्पना के नाग जगे,
सोये थे जो निद्रा मैं कब से,
बांधो, कौन बांधेगा?
छंद के सब बांध टूटे,
ताल सुर बेताल सारे,
नाचो, कौन नाचेगा?
मौन चुप्पी तोड़ चीखा
इस क्रांति की ज्वाला मैं जलकर,
मानो, कौन मानेगा?
दाता बता कैसी बला है,
हर शख्स क्यों बदला हुआ है,
जानो, कौन जानेगा?
"कलेंडर सी जिन्दगी "
कलेंडर सी जिन्दगी
बदल रही है हर रोज
दिन तारीख
महीनों की शक्ल में
और धीरे- धीरे
घट रहा है फासला
दुनियावी सफ़र का
हाँ
कलेंडर पर लिखे
काले हर्फो सी जिन्दगी
हर रोज
नई शक्ल में
आकार बदलती
खुद में उलझी सी
तय कर रही है रास्ता
धीरे-धीरे!!
और गुजरते वक़्त की यादें
मौसम सी
करवट लेती हैं
हर शख्स के मन में
जो भर देती है
नए उत्साह से
नव उमंग से
हमारी धमनियों को
और हम
भूल जाते हैं
कम होते फासले
उस कलेंडर की तरह
जो दिवार पर टंगा
अब भी फडफडा रहा है
शान से!!!
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