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सोमवार, 31 मई 2010

कागज़ के टुकड़ों पर............!

कागज़ के टुकड़ों पर
कलम की नोक से
काटता हूँ जिस्म को
धीरे-धीरे!
जहाँ से रिश्ता लहू
कविता की सकल में
चिल्लाता है
दर्द बनकर
और में असहाय
निरुपाय
टूटता जाता हूँ
जुड़ने की ललक में
अक्षरों की मानिंद !
मात्रा की तरह !
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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

जाने-अनजाने ......!

मेरे दामन के सब बासी फूल
आज गंगा में
प्रवाहित हो चुके है
तेरी यादों की नमी लेकर
तेरे जिस्म की खुशबू
जो लिपटी थी
चंद गुलाबो की पंखुरियों पर
उन्हें बिखेर आया हूँ मै
उस रेतीली जमीन पर
जहां से उठते कई सवाल
झांक रहे थे
तुम्हारी सकल में
और मैं
मुह बाये
देखता रहा था
उन्हें अनदेखा कर
और खुद को छोड़ आया हूँ
उन सवालों के कटघरे मैं
उसी गंगा तट पर
जहाँ से तुम्हारी यादों का सफ़र
मुझे खीच लाया था
तुम्हारी तरफ
ज्वार बनकर
जाने-अनजाने !

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

"कौन बांचेगा?"

शब्द मन की अर्गला को,
खोल पसरे उर्ध्व होकर,
बांचो, कौन बांचेगा?
वेदना की पोत कालिख,
कह रही है लेखनी भी,
बांचो, कौन बांचेगा?
कल्पना के नाग जगे,
सोये थे जो निद्रा मैं कब से,
बांधो, कौन बांधेगा?
छंद के सब बांध टूटे,
ताल सुर बेताल सारे,
नाचो, कौन नाचेगा?
मौन चुप्पी तोड़ चीखा
इस क्रांति की ज्वाला मैं जलकर,
मानो, कौन मानेगा?
दाता बता कैसी बला है,
हर शख्स क्यों बदला हुआ है,
जानो, कौन जानेगा?

"कलेंडर सी जिन्दगी "


कलेंडर सी जिन्दगी
बदल रही है हर रोज
दिन तारीख
महीनों की शक्ल में
और धीरे- धीरे
घट रहा है फासला
दुनियावी सफ़र का
हाँ
कलेंडर पर लिखे
काले हर्फो सी जिन्दगी
हर रोज
नई शक्ल में
आकार बदलती
खुद में उलझी सी
तय कर रही है रास्ता
धीरे-धीरे!!
और गुजरते वक़्त की यादें
मौसम सी
करवट लेती हैं
हर शख्स के मन में
जो भर देती है
नए उत्साह से
नव उमंग से
हमारी धमनियों को
और हम
भूल जाते हैं
कम होते फासले
उस कलेंडर की तरह
जो दिवार पर टंगा
अब भी फडफडा रहा है
शान से!!!

शनिवार, 20 मार्च 2010

"मेरे लिए"


धुंधलाती सांझ की दीवारों पर टिकी
आसमानी छत के नीचे
जब सूरज डूबने लगता है,
अपने घर के कोने में
तो लगता है की
ताम्बे की परात में
बादलों सा श्वेत आटा गूंथे तुम
सूरज की अलाव पर
सेंक रही हो रोटियां
मेरे लिए!!
और मैं घर की राहदरी में टहलता हूँ
तुम्हारे बुलावे तक
और जब तुम आवाज दे
बुलाती हो मुझे चोके पर
खाने के लिए
तो चाँद चुपके से उतर आता है
मेरी थाली में रोटी की तरह!!
...................... नववर्ष २०६७ की शुभकामनायें

गांधीजी तुम्हारे तीन बन्दर.............!


गांधीजी तुम्हारे तीन बन्दर
पहला-------> बीमार है!
दूसरा--------> लाचार है!
तीसरा--------> बेरोजगार है!
ओ बापू! तुम्ही बताओ
क्या तुम्हारे स्वप्निल रामराज्य का भारी बोझ
इन दुर्बल कहारों के कन्धों पर टिक पायेगा!

रविवार, 1 नवंबर 2009

हिन्द-युग्म: ओ मरियम तुम्हीं बताओ....

पुरस्कृत कविता- मरियम तुम्ही बताओ

ओ मरियम! 
मेरे परमेश्वर की माँ! 
तुम्हीं बताओ 
मैं क्या करूँ? 
तुम्हीं बताओ 
मैं कैसे उठाऊं 
अपने परमेश्वर के कृत्यों का अनचाहा बोझ 
जो अनजाने ही हो रहा है पोषित मेरे गर्भ मैं? 
ओ मरियम तुम्हीं बताओ....! 
ओ मरियम!
क्या तुमने भी भोगा था यह अभिशाप 
जो मुझे मिला है 
एक 'कुवारी माँ' बनकर, 
शायद नहीं! 
क्योंकि तब वासना की भूख 
इतनी भड़की नहीं रही होगी 
ना ही मानव इतना कुटिल रहा होगा 
जितना कि आज है 
तुम्हारे पुत्र को 
जो निशानी था तुम्हारे परमेश्वर की 
उसे उन भोले मासूम लोगों ने 
मान लिया दाता
अपना भाग्य विधाता 
मगर....... 
मेरे परमेश्वर की निशानी 
इन्सां नहीं 
जानवर की औलाद होगी....! 
ओ मरियम! 
तुम जान सकती हो मेरे जैसी लाखों मरियामों का दर्द 
जो आज भी
छोड़ देती हैं, 
अपने परमेश्वर की निशानी 
किसी अनाथालय, वाचनालय, 
मंदिर या गिरजाघर के 
किसी सुनसान कोने में. 
या फिर समय से पहले 
कालकलवित हो जाती है 
नन्ही रूह
ओ मरियम, 
तुम जान सकती हो मेरा दर्द 
तुम्हीं बताओ
क्या करूँ मैं................!

kaushik sahab, manoj ji, rashmiji, rachna ji, vinod ji,asha ji, kishore ji, aap sabhi logon ne kavita ko padha uski sarahna ki, atisay dhanyabad